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त्वं तं ब्र॑ह्मणस्पते॒ सोम॒ इन्द्र॑श्च॒ मर्त्य॑म्। दक्षि॑णा पा॒त्वंह॑सः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tam brahmaṇas pate soma indraś ca martyam | dakṣiṇā pātv aṁhasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। तम्। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। सोमः॑। इन्द्रः॑। च॒। मर्त्य॑म्। दक्षि॑णा। पा॒तु॒। अंह॑सः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:18» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसे वे रक्षा करनेवाले होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ब्रह्मणस्पते) ब्रह्माण्ड के पालन करनेवाले जगदीश्वर ! (त्वम्) आप (अहंसः) पापों से जिसकी (पातु) रक्षा करते हैं, (तम्) उस धर्मात्मा यज्ञ करनेवाले (मर्त्यम्) विद्वान् मनुष्य की (सोमः) सोमलता आदि ओषधियों के रस (इन्द्रः) वायु और (दक्षिणा) जिससे वृद्धि को प्राप्त होते हैं, ये सब (पातु) रक्षा करते हैं॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अधर्म से दूर रहकर अपने सुखों के बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे ही परमेश्वर के सेवक और उक्त सोम, इन्द्र और दक्षिणा इन पदार्थों को युक्ति के साथ सेवन कर सकते हैं॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कथं ते रक्षका भवन्तीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे ब्रह्मणस्पते ! त्वमंहसो यं पासि तं मर्त्यं सोम इन्द्रो दक्षिणा च पातु पाति॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) जगदीश्वरः (तम्) यज्ञानुष्ठातारम् (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पते) पालकेश्वर ! (सोमः) सोमलताद्योषधिसमूहः (इन्द्रः) वायुः (च) समुच्चये (मर्त्यम्) विद्वांसं मनुष्यम् (दक्षिणा) दक्षन्ते वर्धन्ते यया सा। अत्र द्रुदक्षिभ्यामिनन्। (उणा०२.४९) इतीनन्प्रत्ययः। (पातु) पाति। अत्र लडर्थे लोट्। (अंहसः) पापात्। अत्र अम रोगे इत्यस्मात् अमेर्हुक् च। (उणा०४.२१३) अनेनासुन्प्रत्ययो हुगागमश्च॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अधर्माद् दूरे स्थित्वा स्वेषां सुखवृद्धिमिच्छन्ति ते परमेश्वरमुपास्य सोममिन्द्रं दक्षिणां च युक्त्या सेवयन्तु॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अधर्मापासून दूर राहून आपले सुख वाढविण्याची इच्छा बाळगतात तीच माणसे परमेश्वराचे सेवक व वरील सोम, इन्द्र व दक्षिणा (वृद्धी करणाऱ्या) या पदार्थांना युक्तीने सेवन करू शकतात. ॥ ५ ॥